

सबको सन्मति दे भगवान…जैसे तराने को देश की फिजाओं में खुशबू की तरह बिखेरने वाला व्यक्ति जिसको दुनिया ने महात्मा, राष्ट्रपिता, और बापू कहा था उसको भी हमने मार डाला। गाँधी को तब मारा गया जब पुरी दुनियां उनकी प्रशंसा कर रही थी। आइंस्टीन जैसा विद्वान उन्हें चमत्कार बता रहे थे। देश को उनके नेतृत्व और मार्गदर्शन की अत्यन्त जरुरत थी पर गोलियों की धाय..धाय..धाय.. की तीन आवाजों के साथ ‘ हे राम! ‘ कह कर वह सदा के लिए मौन हो गए और अपने राम के पास चले गये। अब उनके राम अयोध्या के राम थे या कण-कण में व्याप्त राम थे। इस पर चाहे तो हंगामा खड़ा किया जा सकता है। इस पर एक देश व्यापी बहस चलनी चाहिये, चुनाव भी हैं। गाँधी नाम का डेढ़ पसली वाला व्यक्ति हंगामे से दूर चुपचाप अनशन करने वाला, भगवान बुद्ध का अनुसरण करने वाला, अहिंसा से हिंसा को जितने वाला जादूगर को हमने मार डाला। या कहे तो कट्टरता द्वारा सहिष्णुता को हमने मारा है। 30 जनवरी को पूरे दुनियां में कोहराम मचा पड़ा था क्योंकि नाथूराम ने एक महात्मा को मारा था। या कहे की असहिष्णुता ने सहिष्णुता को मारा था। पूरा देश विलाप-रुदन के सागर में डूबा पड़ा था। कितनी विडम्बना है कि देश ने उसको मार डाला था जिसने गुलामी की पाश से आजाद कराने का पाप किया था।
कट्टरवादियों को दरकिनार कर दें तो पता चलता है कि गाँधी क्या थे। उन घरों में कई दिन चूल्हा नहीं जला था जिसने कभी गाँधी को देखा तक नहीं था। यह थी गाँधी के मरने के गम की आम जन अभिव्यक्ति। उस दिन गावों, कस्बों तक में सार्वजनिक रुदन हुआ था। सवर्ण, अवर्ण सब रोये थे। विरोधियों के लिए गाँधी भले ही देवता ना हो पर अनुयायियों के लिए भगवान है। उनके विरोधी और समर्थक दोनों मानते हैं कि वे साधारण व्यक्ति नहीं थे। महामानव थे कि नहीं, इस पर बहस की जा सकती है। भारत ही नहीं अपितु दुनिया के दूसरे देश भी गाँधी में कुछ ऐसा पाते हैं, जो उनके मरने के इतने दिनों बाद भी उनमें अपनी श्रद्धा रखे हुए हैं।
अपने लम्बे राजनीतिक जीवन में कितना गाँधी ने सही या गलत किया इस पर विचार करना गलत नहीं है पर आज उनके जाने के बाद यदि गोडसे जैसे हत्यारे के नाम पर कुछ लोग राजनीति कर रहे है, उसे इस कृत हेतु सम्मान दे रहे है, उसके द्वारा कि गई हत्या को वध बता रहे हैं तो यह चिंतनीय भी है और निंदनीय भी क्यों की लोकतंत्र में हिन्सा की कोई जगह नहीं होती। गाँधी ने देश को क्या दिया या गाँधी देश के लिए क्या थे अथवा उनके कार्य, सिद्धान्त, आन्दोलन और जीवनशैली, उन के फैसले, भारत विभाजन पर उनकी राय, पाकिस्तान को 200 करोड़ रुपये और एक बड़ा भूभाग देने पर बड़े नेताओं से अलग सोच बात करने का विषय हो सकता है।
उनके अनुयायियों और विरोधियों में उनके जाने के बाद इन विषयों पर बहस होती रही है और हो सकता है यह बहस तब तक हो जब तक गांधी का नाम रहे। गांधी के हत्यारों ने शायद यह नहीं सोचा था कि वध मनुष्य का किया जा सकता है, दर्शन या सिद्धांतों का नहीं। इसलिए गांधी मारे जा सके, किन्तु गांधीवाद जैसा का तैसा ही रहा है बढ़ती मात्रा में। “गांधी वध और मैं” किताब में गोपाल गोडसे ने नाथूराम गोडसे और नाना आपटे के उस फासी वाले दिन का जिक्र किया है।
लिखते हैं कि रांची के प्रांगण में पहुंचकर श्रद्धेय नाथूराम गोडसे और नाना आपटे ने ‘अखंड भारत अमर रहे’ और ‘वंदे मातरम्’ का घोष किया। मातृभूमि की वंदना करते हुए उच्चार किया:-
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे,
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वध्दिर्तोहं।
महामंगले पुण्यभूमे त्वदर्थे,
पतत्वेष कायो नमस्ते- नमस्ते।
यह संस्कृत का श्लोक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रार्थना श्लोक है। विस्तार में दिए हुए इस श्लोक को पढ़ने के बाद यही पता चलता है की व्यक्ति के आचरण को पवित्र बनाने के लिए धर्म के रास्ते पर चलना पड़ता है जिससे वह हर एक व्यक्ति के साथ न्याय कर सकते हैं। इस बात को नाथूराम गोडसे ने नहीं समझा अखंड भारत की रचना किसी राष्ट्रपिता की हत्या करके नहीं की जा सकती और इस श्लोक के अर्थ को नाथूराम ने आत्मसात किया होता और समझा होता तो महात्मा गांधी की हत्या नहीं हुई होती। इस बात को हमें भी समझना होगा। सादगी, साहस, समझ, और सत्यनिष्ठा जैसे अलौकिक गुण गांधी जी के व्यक्तित्व के पर्यायवाची हैं। माना जाय तो इन सबके मिश्रण से ही निर्माण हुआ है ‘महात्मा’ का।
अब हमें जरुरत है अपने मन की कम बुद्धि को ज्यादा सुनने की जिससे हम तथ्यों के साथ न्याय कर सके। आत्मविश्लेषण और सत्य को स्वीकार करने के लिए अत्यंत सत्य रूपी साहस की ज़रुरत होती है । महात्मा गांधी ने आत्म आलोचना कर के उस साहस को संजोया है। जिसे हम महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ से समझ सकते हैं। सेवा, भक्ति, धर्म ,सहिष्णुता, त्याग, प्रेम, श्रद्धा, सरलता और खुली आंखों से आसपास होने वाली घटनाओं की समझ और स्पष्ट निर्णय लेने की क्षमता थी महात्मा गांधी में। मेरा व्यक्तिगत रुप से मानना है कि जो भी नैतिक और अध्यात्मिक स्तर पर स्वयं को उन्नत करना चाहता है, जो मानवता की सेवा करने के लिए संकल्प वान है, जो राष्ट्र हित के लिए कुछ करना चाहता है ,जनहित और राजनीति जिसके लिए धंधा नहीं एक मिशन है। उसको गांधीगिरी के रास्ते पर चलना चाहिए। गांधीजी के सकारात्मक मूल्यों को मैंने अपनाया है और मैं अपने दैनिक व्यवहार में देख पा रहा हूं। क्या बदला है या तो नहीं समझ पा रहा हूं लेकिन कुछ बदला जरूर है।